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स्त्री मुक्ति से पहले पुरुष मुक्ति

ज्योति सराफ
चारों ओर एक ही सुर गूंजते हैं कि स्त्री मुक्ति अनिवार्य है। अब समय आ गया है कि स्त्री को पुरुष की गुलामी से मुक्त होना होगा। लेकिन यह तो एक पहलू है। दूसरे पहलू पर भी गौर करना जरूरी है। निष्चित ही स्त्री की दषा आज की बड़ी समस्या है और इसमे सुधार लाना बहुत जरूरी है लेकिन किसी समस्या को खत्म करने के लिए सबसे पहले उसके कारणों को जानना होगा। किसी बीमारी को ठीक करने के लिए उसकी जड़ में जाना जरूरी है। सदियों से हम स्त्री को गुलामी करते देखते आए हैं और चिंतित भी होते आए हैं। उसे आजाद करने के नित नए प्रयास भी होते हैं। स्त्री गुलामी से संघर्ष कर रही है लेकिन मूल वजह तो अभी भी संक्रमित है। घाव बाहर से भरा सा दिखने लगे और भीतर संक्रमण षेष रह जाए तो घाव के बार-बार उभरने का खतरा बना रहता है। हमारा टार्गेट जड़ होना चाहिए। नारी समाज की आधी आबादी है। मनुष्य का आधा हिस्सा है स्त्री। बुराई को खत्म करने के लिए आधे हिस्से को साफ किया जाए तो बाकी आधे हिस्से में बुराई जीवित रहती है जो जब-तब पूरे समाज को गंदा करती रहती है। अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्री नित प्रयासरत है। नइ नई स्त्री के नए स्वरूप और सफलताओं को पुरुष कुछ हद तक स्वीकार भी रहा है, लेकिन भले ही महिलाएं खुद को बदल रही हैं पर पुरूष आज भी प्राचीन पुरूष बना हुआ है। कहीं न कहीं आज भी उसके अंदर वही संस्कार जीवित हैं जो स्त्री दासता के लिए जिम्मेदार है। जो स्त्री को स्त्री नहीं भोग्या मात्र ही समझते हैं। पुरूष के भीतर गहराई में कहीं स्त्री विरोधी विचार बैठे हुए हैं। ऐसे विचार जो औरत को परिवार, गृहस्थी और पुरूष के दायरे में बांधते हैं। नए विचारों का संचार तो दूर उनकी रोषन तक वहां नहीं पहुंचती। ऐसे में नारी उत्थान के लिए किए जाने वाले सारे प्रयास अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते। आज भी समाज के आइने में औरत की तस्वीर सेक्स से उपर नहीं उठ पाई है। स्त्री चाहे कितनी भी पढ़ी लिखी, नौकरीपेषा और काबिल हो पुरूष के लिए वह सेक्स आॅब्जेक्ट ही होती है। दरअसल पुरूष के अंदर नारी विरोधी संक्रमण मौजूद होने के कारण ही वो विष्वास पात्र नहीं है। औरत खुद को आज भी किसी पुरूष के साथ सुरक्षित महसूस नहीं करती। कोई भी पुरूष अपनी पत्नी, बहन, बेटी को पराए पुरूष के साथ सुरक्षित महसूस नहीं करता क्योंकि सभी हकीकत से वाकिफ हैं। आखिर क्यों पुरूष के मस्तिष्क में औरत सेक्स से उपर जगह हासिल नहीं कर पाती। जब तक औरत हो केवल संभोग्य षरीर समझा जाएगा तब तक न तो स्त्री को सम्मान मिलेगा और न ही उसके दषा में परिवर्तन आएगा। स्त्री बौद्धिक, षैक्षिक, आर्थिक स्तर पर जरूर स्वतंत्र हुई है लेकिन उसकी असली मुक्ति पुरूष के विकास के बिना अधूरी है क्योंकि औरत पुरूषों के घेराबंद समाज में ही रहती है। समाज की दषा सुधारने के लिए स्त्री पुरूष दोनों को ही मानसिक और समाजिक स्तर पर विकसित व स्वतंत्र होना होगा। पुरूषों को संकीर्ण संस्कारों की जंजीरों को तोड़ना होगा। नई पीढ़ी में नए और आजाद संस्कार सींचने होंगे। समाज के एक हिस्से को बदलकर दूसरे को पुराने स्वरूप में नहीं छोड़ा जा सकता वरना एक गहरा गैप आ जाएगा। स्त्री पुरूष में दूरी आ जाएगी। स्त्री के साथ पुरूष के मुक्त होने पर ही समाज में संतुलन आएगा। अगर पुरूष ने खुद को पुरातन सोच से आजाद नहीं किया तो परिवार टूटने का कड़ी बढ़ती जाएगी। विवाह नामक संस्था अपना दम तोड़ देगी। अपने अधिकारों के प्रति सजग हुई नई उर्जा से भरी स्त्री पुराने संस्कार के गुलाम पुरूष को नकार देगी। स्त्री के साथ-साथ पुरूष भी भोग्या हो जाएगा। यूज एंड थ्रो होने लगेगा वह भी। स्वस्थ्य समाज के लिए जरूरी है कि पुरूष अपने भीतर बदलाव और औरत के प्रति सम्मान का भाव लाए। नारी क्रांति की मषाल तो जल चुकी है अब जरूरत है पुरूष क्रांति की। ऐसा हो गया तो समाज निष्चित ही खुषी-खुषी रहने का ठिकाना बन जाएगा। परिवर्तन ही संसार का नियम है जो इस धारा में नहीं बहेगा वह पीछ छूट जाता है।
चारों ओर एक ही सुर गूंजते हैं कि स्त्री मुक्ति अनिवार्य है। अब समय आ गया है कि स्त्री को पुरुष की गुलामी से मुक्त होना होगा। लेकिन यह तो एक पहलू है। दूसरे पहलू पर भी गौर करना जरूरी है। निष्चित ही स्त्री की दषा आज की बड़ी समस्या है और इसमे सुधार लाना बहुत जरूरी है लेकिन किसी समस्या को खत्म करने के लिए सबसे पहले उसके कारणों को जानना होगा। किसी बीमारी को ठीक करने के लिए उसकी जड़ में जाना जरूरी है। सदियों से हम स्त्री को गुलामी करते देखते आए हैं और चिंतित भी होते आए हैं। उसे आजाद करने के नित नए प्रयास भी होते हैं। स्त्री गुलामी से संघर्ष कर रही है लेकिन मूल वजह तो अभी भी संक्रमित है। घाव बाहर से भरा सा दिखने लगे और भीतर संक्रमण षेष रह जाए तो घाव के बार-बार उभरने का खतरा बना रहता है। हमारा टार्गेट जड़ होना चाहिए। नारी समाज की आधी आबादी है। मनुष्य का आधा हिस्सा है स्त्री। बुराई को खत्म करने के लिए आधे हिस्से को साफ किया जाए तो बाकी आधे हिस्से में बुराई जीवित रहती है जो जब-तब पूरे समाज को गंदा करती रहती है। अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्री नित प्रयासरत है। नइ नई स्त्री के नए स्वरूप और सफलताओं को पुरुष कुछ हद तक स्वीकार भी रहा है, लेकिन भले ही महिलाएं खुद को बदल रही हैं पर पुरूष आज भी प्राचीन पुरूष बना हुआ है। कहीं न कहीं आज भी उसके अंदर वही संस्कार जीवित हैं जो स्त्री दासता के लिए जिम्मेदार है। जो स्त्री को स्त्री नहीं भोग्या मात्र ही समझते हैं। पुरूष के भीतर गहराई में कहीं स्त्री विरोधी विचार बैठे हुए हैं। ऐसे विचार जो औरत को परिवार, गृहस्थी और पुरूष के दायरे में बांधते हैं। नए विचारों का संचार तो दूर उनकी रोषन तक वहां नहीं पहुंचती। ऐसे में नारी उत्थान के लिए किए जाने वाले सारे प्रयास अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते। आज भी समाज के आइने में औरत की तस्वीर सेक्स से उपर नहीं उठ पाई है। स्त्री चाहे कितनी भी पढ़ी लिखी, नौकरीपेषा और काबिल हो पुरूष के लिए वह सेक्स आॅब्जेक्ट ही होती है। दरअसल पुरूष के अंदर नारी विरोधी संक्रमण मौजूद होने के कारण ही वो विष्वास पात्र नहीं है। औरत खुद को आज भी किसी पुरूष के साथ सुरक्षित महसूस नहीं करती। कोई भी पुरूष अपनी पत्नी, बहन, बेटी को पराए पुरूष के साथ सुरक्षित महसूस नहीं करता क्योंकि सभी हकीकत से वाकिफ हैं। आखिर क्यों पुरूष के मस्तिष्क में औरत सेक्स से उपर जगह हासिल नहीं कर पाती। जब तक औरत हो केवल संभोग्य षरीर समझा जाएगा तब तक न तो स्त्री को सम्मान मिलेगा और न ही उसके दषा में परिवर्तन आएगा। स्त्री बौद्धिक, षैक्षिक, आर्थिक स्तर पर जरूर स्वतंत्र हुई है लेकिन उसकी असली मुक्ति पुरूष के विकास के बिना अधूरी है क्योंकि औरत पुरूषों के घेराबंद समाज में ही रहती है। समाज की दषा सुधारने के लिए स्त्री पुरूष दोनों को ही मानसिक और समाजिक स्तर पर विकसित व स्वतंत्र होना होगा। पुरूषों को संकीर्ण संस्कारों की जंजीरों को तोड़ना होगा। नई पीढ़ी में नए और आजाद संस्कार सींचने होंगे। समाज के एक हिस्से को बदलकर दूसरे को पुराने स्वरूप में नहीं छोड़ा जा सकता वरना एक गहरा गैप आ जाएगा। स्त्री पुरूष में दूरी आ जाएगी। स्त्री के साथ पुरूष के मुक्त होने पर ही समाज में संतुलन आएगा। अगर पुरूष ने खुद को पुरातन सोच से आजाद नहीं किया तो परिवार टूटने का कड़ी बढ़ती जाएगी। विवाह नामक संस्था अपना दम तोड़ देगी। अपने अधिकारों के प्रति सजग हुई नई उर्जा से भरी स्त्री पुराने संस्कार के गुलाम पुरूष को नकार देगी। स्त्री के साथ-साथ पुरूष भी भोग्या हो जाएगा। यूज एंड थ्रो होने लगेगा वह भी। स्वस्थ्य समाज के लिए जरूरी है कि पुरूष अपने भीतर बदलाव और औरत के प्रति सम्मान का भाव लाए। नारी क्रांति की मषाल तो जल चुकी है अब जरूरत है पुरूष क्रांति की। ऐसा हो गया तो समाज निष्चित ही खुषी-खुषी रहने का ठिकाना बन जाएगा। परिवर्तन ही संसार का नियम है जो इस धारा में नहीं बहेगा वह पीछ छूट जाता है।
बना तो दिया है तुमने कुरूप मुझे। पर कितने दिन इस दंभ के साथ जी पाओगे।
मैं तो इस दर्द से लड़कर डटकर फिर जिंदगी जिउंगी। पर जब-जब देखोगे मेरा हौसला मेरी मुस्कान। पछतावे के आंसुओं में तुम तड़पकर रह जाओगे। ----ज्योति
मैं तो इस दर्द से लड़कर डटकर फिर जिंदगी जिउंगी। पर जब-जब देखोगे मेरा हौसला मेरी मुस्कान। पछतावे के आंसुओं में तुम तड़पकर रह जाओगे। ----ज्योति

जिसके होने से घर मंदिर बन जाता है। ऐसा चमत्कार गृहिणी कहलाता है।
जिसे कहते हो मेरे टुकड़ांे में पलने वाली। पालती है वो तुम्हे, तुम्हारे सपनों और भविष्य को। बिलकुल अपनी संतान की तरह बिना शिकायत बिना एहसान। -ज्योति